चीन में एक मशहूर कहावत है: “अधिकारियों ने आंकड़े बनाए, और आंकड़ों ने अधिकारियों को।” यह कहावत वहां के जीडीपी आंकड़ों पर बिल्कुल सटीक बैठती है—वो चमचमाते नंबर जो दुनिया को बताते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था कितनी ‘तेज रफ्तार’ से दौड़ रही है। लेकिन क्या ये नंबर हकीकत हैं या एक सोची-समझी स्क्रिप्ट?
पूर्व चीनी प्रधानमंत्री ली खछ्यांग खुद इस रहस्य पर से परदा उठा चुके हैं। एक लीक हुई अमेरिकी डिप्लोमैटिक केबल में उन्होंने स्वीकार किया था कि चीन के जीडीपी आंकड़े “मानव-निर्मित हैं और इसीलिए अविश्वसनीय।” उन्होंने आधिकारिक जीडीपी पर भरोसा करने के बजाय बिजली खपत, रेल मालवाहन, और बैंक ऋण जैसे संकेतकों पर ध्यान देना बेहतर समझा। यानी ‘ली खछ्यांग इंडेक्स’।
तो आइए, इस धोखे की परतें खोलें—कैसे, क्यों और किस हद तक चीन के जीडीपी आंकड़े एक ‘इकोनॉमिक तमाशा’ हैं।
नंबरों की रसोई: जीडीपी को “पका” कैसे दिया जाता है?
चीन की अर्थव्यवस्था विशाल है—31 प्रांत, सैकड़ों शहर, और हजारों काउंटी। जब बीजिंग एक विकास लक्ष्य तय करता है (जैसे “7%”), तो यह आदेश की तरह नीचे तक पहुंचता है: प्रांत को 8%, शहर को 9%, काउंटी को 10% दिखाना होता है। और अगर कोई अधिकारी ये लक्ष्य पार कर लेता है, तो पदोन्नति पक्की। अब ज़रा सोचिए, अगर प्रमोशन का रास्ता नंबरों से होकर गुजरता है, तो नंबरों के साथ छेड़छाड़ क्यों नहीं होगी?

कैसे होती है हेराफेरी?
- फिजूल के प्रोजेक्ट्स: कई बार स्थानीय अधिकारी अंत तक “जीडीपी बढ़ाने” के लिए बिना जरूरत की सड़कें, पुल, या सरकारी इमारतें बनवाते हैं। ये दिखाने में शानदार लगते हैं, लेकिन वास्तविक उत्पादकता नहीं होती।
- झूठे आँकड़े: कई बार तो सीधे-सीधे आंकड़े गढ़े जाते हैं। 2017 में लियाओनिंग प्रांत ने खुद स्वीकार किया कि उन्होंने 2011–2014 के दौरान अपने जीडीपी आंकड़े 20% बढ़ाकर दिखाए। बाद में इनर मंगोलिया और तिआनजिन ने भी ऐसा ही किया।
यह केवल अतीत की कहानी नहीं है। 2020 में जब पूरी दुनिया मंदी में डूबी थी, तब चीन ने 2.3% की सकारात्मक विकास दर दिखाई। अब बताइए, जादू नहीं तो और क्या?
इस झूठ की कीमत कौन चुकाता है?
1. नीति निर्धारण में गड़बड़ी: जब बीजिंग को सही आंकड़े नहीं मिलते, तो वो सोचता है सब ठीक है। ऐसे में जरूरी आर्थिक मदद समय पर नहीं पहुंचती। 2008 के बाद जिस तरह चीन में कर्ज और बेकार की परियोजनाएं बढ़ीं, वो इसी गलतफहमी का नतीजा है।
2. अंतरराष्ट्रीय अविश्वास: विदेशी निवेशक मूर्ख नहीं हैं। उन्हें पता है कि नंबरों में गड़बड़ है। यही वजह है कि कई बार चीन को निवेश पाने के लिए ज़्यादा ब्याज देना पड़ता है। और जब 2023 में चीनी सरकार ने युवा बेरोजगारी और उपभोक्ता विश्वास जैसे आंकड़े प्रकाशित करना बंद कर दिया, तो विश्लेषकों ने सिर पकड़ लिया।
3. आत्म-मोह का खतरा: जो अधिकारी खुद ही आंकड़ों को फुलाते हैं, वे अंततः उन्हीं पर भरोसा करने लगते हैं। और जब सच सामने आता है, तो आंकड़े तो गिरते ही हैं, साथ में साख भी।
जीडीपी भ्रम के इशारे: किन संकेतकों पर ध्यान दें?
अगर आप चीन की असली आर्थिक स्थिति जानना चाहते हैं, तो इन वैकल्पिक संकेतकों पर नजर रखें:
- बिजली की खपत: असली औद्योगिक गतिविधि दिखाती है।
- रेल मालवाहन: अगर सामान बन रहा है, तो ट्रांसपोर्ट भी होगा।
- आयात-निर्यात: चीन के आंकड़ों की तुलना भागीदार देशों के डेटा से करें।
- कर संग्रह: उच्च जीडीपी लेकिन कम टैक्स? कुछ तो गड़बड़ है।
- रात के उपग्रह चित्र: रात में चमकती रोशनी भी आर्थिक गतिविधि का संकेत है।
बदलाव की उम्मीद?
चीन ने 2020 में एक राष्ट्रव्यापी आर्थिक जनगणना के बाद अपने आंकड़ों में कुछ सुधार किए। कुछ आंकड़े अब स्थानीय अधिकारियों की बजाय केंद्रीय एजेंसियां जुटा रही हैं। लेकिन आदतें इतनी जल्दी नहीं जातीं, खासकर वहां जहां ‘बुरी खबर’ बताना करियर के लिए खतरा है।
2023 और 2024 में जब चीन का विकास दर लक्ष्यों से कम रहा, तो कुछ विशेषज्ञों ने इसे सकारात्मक संकेत माना—कि शायद अब आंकड़े कम से कम सच्चाई के करीब हैं।
भारत के लिए सबक
क्या यह सिर्फ चीन की समस्या है? बिल्कुल नहीं। भारत में भी जीडीपी आंकड़ों पर बहस हुई है। लेकिन भारत में सार्वजनिक जांच, मीडिया बहस और पारदर्शिता का जो माहौल है, वो इसे संतुलित करता है।
आज जब दुनिया की सप्लाई चेन चीन से हटकर नए ठिकाने ढूंढ रही है, भारत के पास मौका है—एक पारदर्शी और भरोसेमंद डेटा सिस्टम के जरिए खुद को निवेश के लिए आकर्षक गंतव्य बनाने का।
निष्कर्ष: जादू टूटता है तो सन्नाटा छा जाता है
चीन की जीडीपी एक मायावी जादू की तरह है—आकर्षक, लेकिन सतही। सरकार खुद ही जादूगर है और खुद ही दर्शक। लेकिन जब एक दिन पर्दा उठता है, तो तालियों की जगह सवाल उठते हैं। और फिर, जब असली आर्थिक हकीकत सामने आती है, तो झूठे नंबरों से बची छवि भी धूमिल हो जाती है।
सच्चे विकास का रास्ता पारदर्शिता से होकर जाता है। चीन के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती है—‘संख्याओं की सुंदरता’ से निकलकर ‘वास्तविक गुणवत्ता’ तक पहुंचना।
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