जब आप कनाडा के बारे में सोचते हैं, तो शायद मेपल सिरप, शिष्ट पड़ोसी और बर्फीले हॉकी रिंक की छवि सामने आती है — न कि अलगाववादी प्रचार और आतंकवादी सहानुभूति का अड्डा। लेकिन अगर आप उस फ्लैनल शर्ट को थोड़ा हटाकर देखें, तो शायद आपको एक और ठंडी सच्चाई दिखाई दे — कनाडा लंबे समय से भगोड़ों, विचारधारात्मक अपराधियों और असामाजिक तत्वों के लिए एक स्वागत योग्य ठिकाना रहा है।
और नहीं, यह सब हाल ही में शुरू नहीं हुआ है। इसकी जड़ें गहरी हैं — जगमीत सिंह की इंस्टाग्राम पोस्ट या जस्टिन ट्रूडो के चमचमाते फोटोशूट्स से कहीं ज्यादा गहरी। कनाडा में खालिस्तान आंदोलन की कहानी भू-राजनीति, नैतिक पतन, वोटबैंक राजनीति और एक सदियों पुरानी कनाडाई परंपरा से उलझी हुई है — “मल्टीकल्चरलिज्म” के नाम पर संदिग्ध लोगों को शरण देना।
आइए इस “शिष्ट पैकेज” के अंदर छिपे अराजकता को खोलें।
अपराधी, मेपल के पत्ते और 1770 का दशक
कनाडा में अपराधियों के लिए “खुले दरवाज़े की नीति” कोई नई बात नहीं है। अमेरिकी क्रांति के बाद, कई अपराधी अमेरिका से भागकर कनाडा आ गए। कनाडा ने उन्हें न केवल वापस नहीं भेजा, बल्कि पृष्ठभूमि जांच किए बिना नागरिकता दे दी। क्यों? क्योंकि उस समय कनाडा खुद अपनी पहचान गढ़ रहा था — और नैतिक रूप से लचीले लोगों से बेहतर “बुनियादी सामग्री” भला क्या होती?
यह ऐतिहासिक उदाहरण सिर्फ इतिहास की किताबों का हिस्सा नहीं है — यह कनाडा की प्रवासी नीति के लिए टोन सेट करता है, खासकर उन समूहों के लिए जिनका राजनीतिक इतिहास जटिल रहा हो।
सैनिक से प्रवासी: सिखों की कनाडा में बसावट
20वीं सदी की शुरुआत में, ब्रिटिश भारतीय सेना के कई सिख सैनिक कनाडा में आकर बस गए। 1930 के दशक तक उन्होंने खेतों पर काम करना शुरू किया और कनाडाई समाज में धीरे-धीरे घुलने लगे। 1970 के दशक तक, दक्षिणी ओंटारियो में सिख आबादी काफी बढ़ चुकी थी। अब तक कोई समस्या नहीं थी — जब तक कि भू-राजनीति बीच में नहीं आई।
1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और उसने कनाडा के साथ मजबूत राजनयिक संबंध बनाने शुरू किए। कनाडा, जो यूरेनियम संसाधनों से समृद्ध था, ने 1950 के दशक में भारत को परमाणु तकनीक में भी मदद की।
फिर आया 1974 — पीयर ट्रूडो की एंट्री, और रिश्तों की एग्ज़िट।
विनाश का प्रारंभ: ट्रूडो सीनियर, परमाणु तनाव और खालिस्तान
1974 में भारत ने “स्माइलिंग बुद्धा ऑपरेशन” के तहत पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसे ट्रूडो सीनियर ने व्यक्तिगत अपमान माना। संबंध बिगड़ गए। ट्रूडो सीनियर ने भारत को “चोट पहुँचाने” के लिए खालिस्तान के मुद्दे को हवा देना शुरू कर दिया — जबकि इस मसले को राजनीतिक समझदारी की जरूरत थी, न कि षड्यंत्रकारियों की।
उधर पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने हरित क्रांति के बहाने अकाली दल को धीरे-धीरे किनारे लगाना शुरू कर दिया। आर्थिक समृद्धि आई, लेकिन नैतिक और सांस्कृतिक खोखलापन भी बढ़ा। इसी ज़मीन पर जरनैल सिंह भिंडरावाले ने अपने उग्रवादी विचारों का बीज बोया।
भिंडरावाले, ऑपरेशन ब्लूस्टार और कनाडा के खुले दरवाज़े
1970 के दशक के अंत तक, भिंडरावाले ने पंजाब में असंतोष और असमानता को भड़काना शुरू कर दिया। हालात बेकाबू हो गए और 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू हुआ — भारत की सेना ने स्वर्ण मंदिर में घुसे हथियारबंद अलगाववादियों को बाहर निकालने के लिए सैन्य कार्रवाई की।
फिर हुई इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद 1984 के विरोधी सिख दंगे। हज़ारों सिखों ने भारत से पलायन किया — और बहुतों की मंज़िल थी… सही पहचाना, कनाडा।
कनाडा ने इन शरणार्थियों की कोई जांच नहीं की — एंट्री पास ऐसे बांटे गए जैसे दिवाली के लड्डू। पृष्ठभूमि जांच? नाम मात्र की। मंशा सत्यापन? शून्य। नतीजा? एक ऐसा राजनीतिक समुदाय जिसका आधार था शिकायत, बदला और उग्र विचारधारा — न कि एकीकरण।
अंतर्राष्ट्रीय सिख संगठनों का उदय
जब कनाडा में सिखों की आबादी बड़ी हुई, तो राजनीति का आना स्वाभाविक था। World Sikh Organization, Canada Sikh Organization, और बाद में Sikhs for Justice (SFJ) जैसे संगठन 1990 और 2000 के दशक में उभरे।
इनका एजेंडा सिर्फ सिखों के अधिकारों की रक्षा नहीं, बल्कि भारत से बदला लेना और खालिस्तान की माँग को बढ़ावा देना था। विशेष रूप से SFJ ने अलगाववादी प्रचार में अग्रणी भूमिका निभाई।
जब भारत पंजाब को आतंकवाद से बाहर निकालने और उसकी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने में लगा था, तब कनाडा में खालिस्तान जनमत संग्रह, विदेशी फंडिंग और राजनीतिक भाषणों का उत्सव मनाया जा रहा था।
तो ये अभिव्यक्ति की आज़ादी थी या विष बोने की आज़ादी?
ड्रग्स, गैंग और नया पलायन
1990 के अंत में पंजाब में जब हालात शांत हुए, तब एक नया राक्षस जन्मा — नशा। पाकिस्तान से सीमा पार तस्करी के ज़रिए पंजाब में ड्रग्स का प्रवाह शुरू हुआ। नौकरी की कम होती संभावनाओं ने पंजाबियों को फिर कनाडा की ओर देखा।
लेकिन अब कनाडा में वैध रूप से प्रवेश आसान नहीं था। तो अर्श डल्ला नेटवर्क जैसे गिरोहों ने युवाओं की तस्करी शुरू की, जिससे एक नया अंडरवर्ल्ड नेटवर्क तैयार हुआ। और पर्दे के पीछे कौन था? पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI)।
ISI की रणनीति साफ थी — कनाडा की ज़मीन से भारत को अस्थिर करना। उग्र युवा + नशे की लत + आर्थिक हताशा = अलगाववाद का आदर्श नुस्खा।
👉 3M का गठजोड़: म्यूज़िक, मर्डर और माइक्रोफोन
2014 से 2017 के बीच एक अजीब चीज़ हुई…
हिंसक, अश्लील पंजाबी संगीत यूट्यूब पर बेतहाशा फैलने लगा। ऐसे गायक, जो बंदूक संस्कृति, गैंगस्टर जीवनशैली और नशे को महिमामंडित करते थे, अचानक सितारे बन गए। इनमें से कई का संबंध सीधे कनाडा की कला संस्थाओं और म्यूजिक लेबल्स से था।
संयोग? बिल्कुल नहीं।
यह एक संगठित सांस्कृतिक हमला था। कनाडा और आईएसआई (ISI) मिलकर कला को हथियार बना रहे थे—संगीत को उग्रवाद का संदेशवाहक बनाया जा रहा था।
यह कोई कला नहीं थी।
यह एक एल्गोरिदम से चलने वाली कट्टरपंथीकरण की प्रक्रिया थी।

जगमीत सिंह और कनाडा में खालिस्तान आंदोलन
आइए अब बात करें कनाडा की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (NDP) के नेता जगमीत सिंह की।
जगमीत सिंह—पगड़ीधारी, चाक-चौबंद सूट में, NDP के चेहरे के रूप में उभरे। पेशे से वकील, पर दिल से राजनेता। उन्होंने जल्दी ही समझ लिया कि सिख वोट एक शक्तिशाली हथियार है। और बजाय खालिस्तानी विचारधारा से दूरी बनाने के, उन्होंने इसका और समर्थन किया।
सिर पर पगड़ी, दिल में खालिस्तान।
जगमीत सिंह ने कनाडा में खालिस्तानी अलगाववादियों को खुश करके अपना राजनीतिक करियर खड़ा किया। उन्होंने:
- भिंडरावाले को आतंकवादी कहने से इनकार किया
- 1984 के दंगों के लिए भारत को दोषी ठहराया, बिना संदर्भ के
- खुलकर खालिस्तान रैलियों का समर्थन किया
- ट्रूडो की लिबरल पार्टी के साथ मिलकर सिख वोटों के लिए गठबंधन किया
हास्यास्पद यह कि जब भारत के सिख आगे बढ़ गए, तो जगमीत सिंह 1980 के दशक में ही अटक गए।
भारत का पलटवार — और कनाडा की शिकायत
जैसे-जैसे खालिस्तानी संगठन और बेशर्म होते गए, भारत ने जवाबी हमला किया। भारत ने उजागर किया:
- विदेशी फंडिंग के नेटवर्क
- सोशल मीडिया पर फैला उग्रवाद
- कनाडा में अवैध जनमत संग्रह
- ISI से जुड़े व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका
और कनाडा?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापने लगा। मानो किसी संप्रभु राष्ट्र के खिलाफ षड्यंत्र रचना भी अब “अभिव्यक्ति” है।
ट्रूडो ने भारत पर “फ्री स्पीच दबाने” का आरोप लगाया।
जगमीत सिंह ने “अत्याचार” का रोना रोया।
और कनाडा सरकार… “संप्रभुता” की दुहाई देने लगी।
इस सबके बीच आम कनाडाई पूछने लगे:
“कनाडा को कौन चला रहा है — प्रधानमंत्री या पाकिस्तान का पीएमओ?”
भारत ने तो यह नाटक कभी खरीदा ही नहीं।
अब कई कनाडाई भी इसे झूठ मानने लगे हैं।
ट्रूडो, रोते हुए जगमीत और कनाडा की मोहभंग
कनाडाई नागरिक अब असली सवाल पूछने लगे:
- आसमान छूती महंगाई
- घर की कमी
- स्वास्थ्य सेवाओं में देरी
इन समस्याओं पर सरकार ध्यान क्यों नहीं देती?
क्या खालिस्तानी अलगाववादियों के एक छोटे समूह को संतुष्ट करना इनसे ज़्यादा ज़रूरी है?
ट्रूडो, जो पहले ही कनाडा को “अमेरिका का 51वां राज्य” कहकर बदनाम कर चुके थे, पूरी तरह से फिसड्डी साबित हुए।
जगमीत सिंह?
खराब चुनावी प्रदर्शन के बाद उन्होंने नेशनल टीवी पर रोना शुरू कर दिया।
खालिस्तानी स्क्रिप्ट मुख्यधारा कनाडा में पिट गई।
जिन लोगों को वे जागरूक कर रहे थे, वही अब उन्हें पहचान चुके थे।
लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था।
कनाडा की विरासत: अपराधियों की शरणस्थली से उग्रवादियों का खेल का मैदान?
क्या कनाडा खालिस्तान का समर्थन करेगा?
अगर इतिहास को देखें, तो उत्तर है—हाँ।
- 1770 का दशक: अमेरिकी अपराधियों को शरण दी
- 1980s: बिना जांच के राजनीतिक शरणार्थियों को जगह दी
- 1990s: अलगाववादी संगठनों को पनपने दिया
- 2000s: गैंग संस्कृति को बढ़ने दिया
- 2010s: पंजाबी पॉप कल्चर को उग्र बना दिया
- 2020s: खालिस्तानी जनमत संग्रह को रविवार की चाय बना दिया
तो क्या कनाडा खालिस्तान का समर्थन करेगा?
दुर्भाग्यवश, वह पहले ही कर चुका है—न केवल निष्क्रिय रूप से, बल्कि सक्रिय और राजनीतिक रूप से भी।
भारत को क्या सीखना चाहिए (और करना चाहिए)
भारत कनाडा की राजनीति को नहीं नियंत्रित कर सकता, पर वो कर सकता है:
- अलगाववादी संगठनों को अवैध फंडिंग पर सख्ती
- रेडिकल कंटेंट को ऑनलाइन स्रोत से ब्लॉक करना
- मध्यमार्गी कनाडाई आवाज़ों से सहयोग बढ़ाना
- ISI–Khalistan–Canada गठजोड़ को दुनिया के सामने उजागर करते रहना
- पंजाब के युवाओं के लिए बेहतर अवसर प्रदान करना, ताकि उन्हें कनाडा पलायन की ज़रूरत ही न पड़े
कनाडा अराजकता चुन सकता है। भारत को दृढ़ता चुननी चाहिए।
अंतिम शब्द: खालिस्तान मर चुका है। बुद्धिमत्ता ज़िंदा रहे।
कनाडा में खालिस्तान आंदोलन सिख अधिकारों का मामला नहीं है—यह एक राजनीतिक नौटंकी है।
यह पीड़ित मानसिकता, विदेशी हस्तक्षेप और वोटबैंक राजनीति का घातक घालमेल है।
अधिकांश भारतीय सिख खालिस्तान नहीं चाहते।
वे चाहते हैं — नौकरी, शांति और समृद्धि।
खालिस्तान का सपना आज भी सिर्फ जगमीत सिंह जैसे नेता और उनके विदेशी कठपुतली मास्टर ही बेचते हैं।
तो अगली बार जब ट्रूडो या जगमीत “स्वतंत्रता” का नारा लगाएं, तो उनसे ज़रूर पूछिए:
“किसकी स्वतंत्रता? अलगाववाद की? आतंकवाद की? या टिकटॉक राजनीति की?”
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