नक्शे की सीमाएं बनाम दिमाग की सीमाएं
1947 में, अंग्रेजों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेटा, उपमहाद्वीप पर एक लकीर खींची और ‘पाकिस्तान’ नामक विचार को जन्म दिया — यह केवल ज़मीन का बंटवारा नहीं था। यह एक रक्तरेखा, एक आस्था, एक वैकल्पिक ब्रह्मांड की रचना थी — जहाँ भारत का अस्तित्व स्वयं एक ब्रह्मांडीय भूल माना गया।
विभाजन केवल एक भू-राजनीतिक घटना नहीं थी। यह एक ऐसे विचार का जन्म था — इतना ताकतवर, इतना विषैला — कि आज भी वह डूरंड और रेडक्लिफ रेखाओं से बहुत आगे तक फैलता जा रहा है।
यह विचार, जिसे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के रूप में स्थापित किया गया, मुसलमानों के लिए एक नया वतन बनाने तक सीमित नहीं था। इसका असली उद्देश्य था भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यतागत एकता को हमेशा के लिए तोड़ना — और एक वैचारिक युद्ध को जन्म देना, जो आज भी जारी है — भारत के भीतर, पूरे दक्षिण एशिया में और वैश्विक मंचों पर भी।
“सच तो यह है कि राष्ट्र मिट्टी पर नहीं, कहानियों पर बनते हैं। और पाकिस्तान का विचार एक ऐसी कहानी है जो एक झूठ से शुरू हुई, कल्पना में पली और आज भी भ्रम में जिंदा है।”
पाकिस्तान का विचार: द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की खामियों भरी नींव
यह सिद्धांत कि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग राष्ट्र हैं और कभी एक साथ नहीं रह सकते — यह दिल्ली की गलियों या पंजाब के खेतों में नहीं पैदा हुआ था। यह तो मुस्लिम नवाबों और ज़मींदारों के ड्राइंग रूम में पला-बढ़ा — वही लोग जो ब्रिटिश हुकूमत के प्रिय थे। सदियों से राजनैतिक विशेषाधिकार भोग चुके इन वर्गों को बहुसंख्यक हिंदू मतों के साथ लोकतांत्रिक बराबरी का भविष्य असहनीय लग रहा था।
ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, जो जमीनी सच्चाइयों से ज़्यादा उच्च वर्ग की चिंताओं से प्रेरित थी, ने इस सिद्धांत को एक सुरक्षात्मक उपाय बताया। असल में यह एक पूर्व-संधान हमला था — एक अल्पसंख्यक समूह ने, अपनी सत्ता जाती देखकर, धर्म की पहचान को हथियार बना लिया। यह राजनीति में शतरंज की बाज़ी उलट देने जैसा था, जब हार तय लग रही हो।
लेकिन यह सिद्धांत मूल रूप से दोषपूर्ण था। यह सदियों की सांझी विरासत, भाषाई मेल, सांस्कृतिक मिश्रण, और ब्रिटिशों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम संयुक्त संघर्ष को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करता था। इसने एक बहुलतावादी सभ्यता को दो टुकड़ों में बांट दिया — एक खतरनाक सरलीकरण, जिसका नतीजा खून-खराबे में निकला।
जिन्ना, जो एक समय में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी थे, अचानक 1940 के लाहौर प्रस्ताव में मुसलमानों के “अलग राष्ट्र” होने की घोषणा करते हैं। यह एक पहचान का झगड़ालू जिद था — “हम एक साथ नहीं खेल सकते, तो अपनी ही बालू में खेल का मैदान बना लेंगे, भले ही वो धँस जाए।”
सभी मुसलमान पाकिस्तान नहीं चाहते थे
एक मिथक तोड़ते हैं: ज़्यादातर भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना ही नहीं चुना।
लगभग 10–12 मिलियन लोग ही सीमा पार गए। बाकी — 30 मिलियन से अधिक मुसलमानों — ने भारत में ही रहना चुना। अगर पाकिस्तान सभी मुसलमानों के लिए “वादा किया गया वतन” था, तो बहुमत ने भारत क्यों चुना?
ज़ाहिर है, पाकिस्तान का विचार कोई सामूहिक मुस्लिम आकांक्षा नहीं था। यह कुछ अभिजात वर्ग के नेताओं का राजनीतिक भ्रम था, जो सत्ता बिना प्रतियोगिता के पाना चाहते थे।
नकार पर बनी एक राष्ट्र
अधिकतर राष्ट्र कुछ सकारात्मक लक्ष्यों पर बनते हैं — स्वतंत्रता, एकता, न्याय।
पाकिस्तान बना भारत के विरोध में।
उसके पाठ्यक्रम ने “कैसे निर्माण करें” नहीं सिखाया, बल्कि “कैसे नफरत करें” सिखाया। पीढ़ियों को पढ़ाया गया कि हिंदू उनके शाश्वत शत्रु हैं, भारत का इतिहास 1947 से शुरू होता है, और उससे पहले सब इस्लामी था।
पाकिस्तानी पाठ्यक्रम में:
- अकबर को सहिष्णु सम्राट नहीं, एक भ्रमित मुसलमान बताया गया।
- हिंदू धर्म को अंधविश्वास कहा गया।
- बांग्लादेश कभी अस्तित्व में नहीं था (जब तक उसने खुद को छीन न लिया)।
पाकिस्तान सिर्फ भारत से अलग नहीं हुआ — वो तथ्यों से भी अलग हो गया।
मज़हब पर आधारित राष्ट्रवाद का फ्रेंकनस्टाइन
पाकिस्तान का विचार एक अजीब रचना है — यह एक अतल खाई जैसा है।
हिंदू निकल गए, अब बारी आई अहमदियों, शियाओं, ईसाइयों, सिखों की। पाकिस्तान ने “पवित्रता” की परिभाषा को बार-बार बदला:
- 1974 में अहमदियों को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया।
- शियाओं पर लगातार बम हमले होते हैं।
- हिंदू आबादी आज घटकर मात्र 1.5% रह गई है।
आख़िरकार, धर्म आधारित राष्ट्रवाद का यही हश्र होता है — वह स्वयं को ही खा जाता है। जैसे एक सांप, जो अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए अपनी ही पूंछ निगल जाए।
भारत के भीतर पाकिस्तान: विभाजन कभी ख़त्म नहीं हुआ
समस्या सिर्फ 1947 में सीमाएं खींचने की नहीं थी। वैचारिक विभाजन आज भी जारी है — भारत के भीतर।
शाहीन बाग़ से लेकर पत्थरबाज़ी तक, दंगों पर चयनात्मक रोष से लेकर उग्रवादियों के महिमामंडन तक — भारत में एक छोटा लेकिन खतरनाक वर्ग है जो मानसिक विभाजन में जीता है।
इसे ही हम कह सकते हैं — “भारत के भीतर पाकिस्तान”। और नहीं, ये लोग हरे कपड़े नहीं पहनते, विदेशी झंडे नहीं लहराते। वे सेक्युलरिज़्म का नक़ाब पहनते हैं और शोषण का कवच।
असफलताओं की त्रासद-हास्य कथा
हर आधुनिक राष्ट्र के मानकों पर पाकिस्तान विफल रहा है:
- लोकतंत्र? मार्शल लॉ उसका डिफ़ॉल्ट मोड है।
- अर्थव्यवस्था? कर्ज़ और दुआओं पर टिकी।
- शिक्षा? तर्क की जगह चरमपंथ को चुनती है।
- राजनय? OIC तक शर्मिंदा है।
लेकिन एक क्षेत्र में अव्वल है — नफरत का निर्यात।
आतंकी समूहों को पेंशन योजनाएं मिलती हैं। नफरत ही उनका GDP है। ग़ज़वा-ए-हिंद उनका स्टार्टअप आइडिया है।
पाकिस्तान का विचार: क्यों आज भी मायने रखता है
अगर आप सोचते हैं कि पाकिस्तान सिर्फ एक पड़ोसी है — तो फिर से सोचिए।
यह एक केस स्टडी है — कि जब नफरत को राष्ट्रीय धर्म बना दिया जाए तो क्या होता है। यह एक आईना है, जो हमें चेतावनी देता है कि अगर हमने वैचारिक युद्ध को नज़रअंदाज़ किया, तो आगे क्या हो सकता है।
शिकार होने की मानसिकता और विक्टिमहुड इकोनॉमी
पाकिस्तानी सत्ता — नागरिक, सैन्य और धार्मिक — ने विक्टिमहुड को एक उद्योग में बदल दिया है।
- शीत युद्ध में अमेरिका से डॉलर लिए सोवियतों से लड़ने के नाम पर।
- फिर ओसामा को पनाह दी।
- 2000 के दशक में आतंक पर दोतरफा खेल खेला।
अब यही विक्टिम नैरेटिव भारत में भी सुनाई देने लगा है।
- हर पुलिस एनकाउंटर — “विच हंट”
- हर कानून — “इस्लामोफोबिक”
- हर बहस — “उत्पीड़न”
जो नैरेटिव पाकिस्तान ने वैश्विक सहानुभूति पाने के लिए इस्तेमाल किया, वही भारत में भी वैचारिक सहयोगियों द्वारा इस्तेमाल हो रहा है — और “लिबरल” बुद्धिजीवियों के समर्थन से।
निष्कर्ष: इस वैचारिक युद्ध को स्पष्टता से लड़ना होगा
पाकिस्तान का विचार केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है। यह एक जीवित विचारधारा है — जो किताबों, टीवी बहसों, शुक्रवार की तक़रीरों, सोशल मीडिया पोस्टों, विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन और अफसोसजनक रूप से — कभी-कभी हमारे पड़ोसियों की मानसिकता में मौजूद है।
सिर्फ पाकिस्तान देश की आलोचना करना काफी नहीं। हमें पाकिस्तान विचार को समझना और उजागर करना होगा — एक ऐसी विचारधारा जो विभाजन, इनकार और विनाश पर आधारित है।
एक विचारधारा जो:
- अपने ही लोगों के प्रति वफादार नहीं रही — (1971 में बांग्लादेश का अलग होना, बलूचों पर अत्याचार, पश्तूनों की उपेक्षा, शियाओं-अहमदियों का नरसंहार) —
- वो वैश्विक शांति या सभ्यतागत बहुलता का आदर कैसे करेगी?
भारत को अपनी कथा बिना संकोच के पुनः प्राप्त करनी होगी — एक ऐसी कथा जो नफरत पर नहीं, ऐतिहासिक सच्चाई पर आधारित हो। जो यथार्थवाद को असहिष्णुता न समझे।
क्योंकि किसी विचारधारा से लड़ने के लिए, पहले उसका नाम लेना ज़रूरी है।
स्पष्ट हो जाएँ: विभाजन एक बार की घटना नहीं थी। यह एक वैचारिक युद्ध की शुरुआत थी।
और यह युद्ध — एक सभ्यतागत एकता पर आधारित राष्ट्र और एक बहिष्करण पर आधारित विफल राष्ट्र के बीच — आज भी जारी है।
और जब तक हम पाकिस्तान के विचार को पराजित नहीं करते, भारत की एकता की कहानी हमले में रहेगी।